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।। यज्ञों का लाभ केवल सांसारिक सुविधाएँ, मुक्ति नहीं।।

   अध्याय 3  के श्लोक  10  में कहा है कि प्रजापति ने कल्प के प्रारम्भ में कहा था कि सब प्रजा यज्ञ करें। इससे तुम्हें सांसारिक भोग प्राप्त होंगे, न कि मुक्ति। इसका जीवित प्रमाण है कि यज्ञों से सांसारिक भोगों व स्वर्ग प्राप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं।  क्ष्यज्ञ भी आवश्यक हैं जैसे गेहूँ का बीज जमीन में बीजने के पश्चात् उसको सिंचाई के लिए जल तथा पोषण के लिए खाद की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार परमात्मा की भक्ति के लिए नाम मंत्रा रूपी बीज आत्मा में डालने के पश्चात् उसमें यज्ञों (पाँचों यज्ञों = धर्म यज्ञ, हवन यज्ञ, ध्यान यज्ञ, प्रणाम यज्ञ, ज्ञान यज्ञ) रूपी जल व खाद की आवश्यकता होती है। परंतु पूर्ण गुरु से नाम ले कर गुरु मर्यादा में रहते हुए अंतिम समय तक अनन्य मन से नाम जाप (अभ्यास योग) करता रहे वह साधक अंत में अपने इष्ट लोक में चला जाता है तथा जब तक संसार में रहता है, उसको यज्ञों के फल रूप में संसारिक सुविधाऐं भी अधिक मिलती रहती हैं। वही यज्ञों में प्रतिष्ठित इष्ट (पूर्ण परमात्मा) ही मन इच्छित यज्ञों का फल देता है। प्रमाण के लिए गीता जी के अध्याय  3  के श्लोक  14.15  में देखें। अध्याय  3  के श्लोक  11  में कहा है कि देवता यज्ञ से उन्नत होकर आप को उन्नत करें अर्थात् धनवान बनाएगें। इस प्रकार एक दूसरे का सहयोग रखो। अध्याय  3 का श्लोक  10 सहयज्ञाः, प्रजाः, सृष्टा, पुरा, उवाच, प्रजापतिः, अनेन, प्रसविष्यध्वम्, एषः, वः, अस्तु, इष्टकाम
धुक्।।10।। अनुवाद : (प्रजापतिः) प्रजापति यानि कुल के मालिक ने (पुरा) कल्पके आदिमें (सहयज्ञाः) यज्ञसहित (प्रजाः) प्रजाओंको (सृष्टा) रचकर उनसे (उवाच) कहा कि (अनेन) अन्न द्वारा होने वाला धार्मिक कर्म जिसे धर्म यज्ञ कहते हैं, जिसमें भोजन-भण्डारे यानि लंगर करना है, इस यज्ञ के द्वारा (प्रसविष्यध्वम्) वृद्धि को प्राप्त होओ और (वः) तुम साधकों को (एषः) यह पूर्ण परमात्मा (इष्टकामधुक्) यज्ञ में प्रतिष्ठित इष्ट ही इच्छित भोग प्रदान करनेवाला (अस्तु) हो।(3ध्10) भावार्थ :- पूर्ण परमात्मा ने कल्प के प्रारम्भ में यज्ञों यानि धार्मिक अनुष्ठानों का ज्ञान तथा प्रजा को उत्पन्न करके उनसे कहा था कि अन्न द्वारा होने वाले धार्मिक कर्म जिसे धर्म यज्ञ कहते हैं जिसमें भोजन-भण्डारा यानि लंगर करना। इस यज्ञ के द्वारा बुद्धि को प्राप्त होओ यानि धर्म करने से धन प्राप्त होता है। तुम साधकों को यज्ञ में पूज्य इष्ट देव ही मनवांछित भोग प्रदान करे। यानि धन चाहिए तो दान धर्म कर, मुक्ति चाहिए तो ‘‘भज सतनाम’’ वाले सिद्धांत अनुसार पूर्ण परमात्मा साधक को लाभ देता है, उसे प्राप्त करो।(3ध्10) अध्याय  3  का श्लोक  11 देवान्, भावयत, अनेन, ते, देवाः, भावयन्तु, वः, परस्परम् भावयन्तः, श्रेयः, परम्, अवाप्स्यथ।।11।। हिन्दी अनुवाद :- यज्ञ के द्वारा देवताओं अर्थात् संसार रूपी पौधे की शाखाओं को उन्नत करो और वे देवता अर्थात् शाखाऐं तुम लोगों को उन्नत करें यानि पौधा पेड़ बनेगा। शाखाऐं फल देंगी। इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करके परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।(3ध्11) नोट :- इस ज्ञान को समझने के लिए कृपा देखें इसी पुस्तक के पृष्ठ  42  पर संसार रूपी पौधे का चित्रा। चित्रों के द्वारा गीता अध्याय  3  के श्लोक  10.15  तक को समझना सरल हो जाएगा।

विशेष :- गीता अध्याय  15  श्लोक  1  से  4  में वर्णित उल्टा लटका हुआ संसार रूपी वृक्ष है, उस की जड़ (मूल) तो पूर्ण परमात्मा है तथा तना परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष है तथा डार क्षर पुरुष (ब्रह्म) है व तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी रूपी शाखायें हैं। वृक्ष को मूल(जड़) से ही खुराक अर्थात् आहार प्राप्त होता है। जैसे हम आम का पौधा लगायेंगे तो मूल को सीचेंगे, जड़ से खुराक तना में जायेगी, तना से मोटी डार में, डार से शाखाओं में जायेगी, फिर उन शाखाओं को फल लगेंगे, फिर वह टहनियां अपने आप फल देंगी। इसी प्रकार पूर्णब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म रूपी मूल की पूजा अर्थात् सिंचाई करने से अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म रूपी तना में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी, फिर अक्षर पुरुष से क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म रूपी डार में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी। फिर ब्रह्म से तीनों गुण अर्थात् श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी रूपी तीनों शाखाओं में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी। फिर इन तीनों देवताओं रूपी टहनियों को फल लगेंगे अर्थात् फिर तीनों प्रभु श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी हमें संस्कार आधार पर ही कर्म फल देते हैं। यही प्रमाण गीता अध्याय  15  श्लोक  16  व  17  में भी है कि दो प्रभु इस पृथ्वी लोक में हैं, एक क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म, दूसरा अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म। ये दोनों प्रभु तथा इनके लोक में सर्व प्राणी तो नाशवान हैं, वास्तव में अविनाशी तथा तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण-पोषण करने वाला परमेश्वर परमात्मा तो उपरोक्त दोनों भगवानों से भिन्न है।

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